नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में आज राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास बिल लंबित रखने से जुड़े मामले की सुनवाई हुई। दोनों पक्षों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया। नोटिस जारी करके राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा 14 विषयों पर मांगी गई राय को लेकर जवाब मांगा गया है।
राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी कि क्या अदालत संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित किए गए विधेयकों पर स्वीकृति देने के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा तय कर सकती है? सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच मामले की सुनवाई कर रही है और अगली सुनवाई 29 जुलाई को होगी।
चीफ जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि न्यायालय इस मामले की सुनवाई अगस्त में करने का प्रस्ताव रखता है। अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी से पीठ ने न्यायालय की सहायता करने का अनुरोध किया। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वह भारत संघ की ओर से पेश होंगे और उन्होंने संघ के लिए नोटिस जारी करने से मना कर दिया। केरल राज्य की ओर से सीनियर एडवोकेट केके वेणुगोपाल ने कहा कि राज्य संदर्भ की स्वीकार्यता के संबंध में एक मुद्दा उठाएगा। तमिलनाडु राज्य की ओर से सीनियर एडवोकेट पी विल्सन ने कहा कि संदर्भ के मुद्दे तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले में दिए गए फैसले में पहले से ही शामिल हैं। विल्सन ने आगे कहा कि तमिलनाडु भी स्वीकार्यता का मुद्दा उठाएगा।
राष्ट्रपति ने यह संदर्भ तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दिया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के अनुसार राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए क्रमशः समय-सीमा निर्धारित की गई थी। तमिलनाडु मामले में जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने कहा कि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर “पॉकेट वीटो” का प्रयोग नहीं कर सकते। राज्यपाल के निर्णय के लिए तीन महीने की ऊपरी सीमा तय की। न्यायालय ने आगे कहा कि यदि राज्यपाल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए आरक्षित रखा जाता है तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर कार्य करना होगा।
क्या है मामला?
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा बिलों को लंबित रखने के मुद्दे पर महत्वपूर्ण फैसला दिया था। तमिलनाडु, पंजाब और अन्य राज्यों ने संविधान के अनुच्छेद 200 (राज्यपालों के लिए) और अनुच्छेद 111 (राष्ट्रपति के लिए) के तहत मिली शक्तियों पर सवाल उठाए जा रहे थे। तमिलनाडु सरकार ने साल 2023 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इसमें कहा गया था कि राज्यपाल RN रवि ने साल 2020 से साल 2023 के बीच पारित 12 विधेयकों पर फैसला लंबित रखा हुआ था। कुछ बिलों को राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास भेजा, लेकिन उन्होंने भी कोई कार्रवाई नहीं की।
न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि समय-सीमा का कोई उल्लंघन होता है तो राज्य सरकार न्यायालय से परमादेश याचिका (रिट) प्राप्त करने की हकदार होगी। तमिलनाडु राज्य द्वारा दायर याचिका स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी घोषित किया कि राज्यपाल द्वारा एक वर्ष से अधिक समय से लंबित रखे गए दस विधेयकों को मानित स्वीकृति प्राप्त हो गई। पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस निर्णय की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या न्यायालय को राष्ट्रपति को निर्देश जारी करने का अधिकार है।
उपराष्ट्रपति ने तो न्यायपालिका के पास अनुच्छेद 142 की शक्ति को “परमाणु मिसाइल” तक कह दिया। राष्ट्रपति के संदर्भ में उठाए गए प्रश्नों में से एक यह है कि क्या न्यायालय राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग के लिए न्यायिक रूप से कोई समय-सीमा निर्धारित कर सकता है।
उल्लेखनीय है कि जस्टिस नरसिम्हा और जस्टिस चंदुरकर की खंडपीठ केरल के राज्यपाल मामले की भी सुनवाई कर रही है, जिसके बारे में केरल राज्य सरकार का कहना है कि यह तमिलनाडु के निर्णय के अंतर्गत आता है। जबकि, केंद्र सरकार इस दलील का विरोध करती है। केंद्र सरकार तर्क देती है कि यह निर्णय केरल के राज्यपाल के मामले को कवर नहीं करता और इसके अलावा, न्यायालय राष्ट्रपति के संदर्भ की सुनवाई तक प्रतीक्षा कर सकता है।
राष्ट्रपति ने की थी आपत्ति
सुप्रीम कोर्ट के समयसीमा तय करने के फैसले ने राष्ट्रपति को संविधान के तहत मिली पॉकेट वीटो शक्ति को सीमित किया। राष्ट्रपति ने इस फैसले पर कड़ी आपत्ति जताई और सवाल किया कि जब भारतीय संविधान के तहत राष्ट्रपति को किसी बिल पर फैसले लेने का विवेकाधिकार मिला है तो फिर सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति के इए अधिकार में हस्तक्षेप कैसे कर सकता है?
राष्ट्रपति ने SC को भेजा रेफरेंस
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत एक एडवाइजरी ज्यूरिडिक्शन (संदर्भ) सुप्रीम कोर्ट को भेजा, जिसमें बिलों पर फैसला लेने की समयसीमा लागू करने की संवैधानिक वैधता को लेकर 14 सवाल पूछे गए। इसी मामले में आज 22 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई शुरू की है। पहली सुनवाई में ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और फैसला राष्ट्रपति और राज्यपालों की शक्तियों को और स्पष्ट करेगा।
राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए प्रश्न ?
1. जब भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो उसके सामने संवैधानिक विकल्प क्या हैं?
2. क्या राज्यपाल, भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते हुए मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह से बाध्य है?
3. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा संवैधानिक विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायोचित है?
4. क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 361, भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है?
5. संवैधानिक रूप से निर्धारित समय-सीमा और राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में क्या राज्यपाल द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत सभी शक्तियों के प्रयोग के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमाएँ निर्धारित की जा सकती हैं और प्रयोग का तरीका निर्धारित किया जा सकता है?
6. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?
7. संवैधानिक रूप से निर्धारित समय-सीमा और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग हेतु न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमाएँ निर्धारित की जा सकती हैं और प्रयोग का तरीका निर्धारित किया जा सकता है?
8. राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली संवैधानिक व्यवस्था के आलोक में क्या राष्ट्रपति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत संदर्भ के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने और राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए या अन्यथा आरक्षित रखने पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने की आवश्यकता है?
9. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय कानून के लागू होने से पहले के चरण में न्यायोचित हैं? क्या न्यायालयों के लिए किसी विधेयक के कानून बनने से पहले किसी भी रूप में उसकी विषय-वस्तु पर न्यायिक निर्णय लेना अनुमन्य है?
10. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा दिए गए आदेशों को किसी भी प्रकार से प्रतिस्थापित किया जा सकता है?
11. क्या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल की अनुमति के बिना लागू कानून माना जाता है?
12. भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के प्रावधान के मद्देनजर, क्या इस माननीय न्यायालय की किसी भी पीठ के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह पहले यह निर्णय करे कि क्या उसके समक्ष कार्यवाही में शामिल प्रश्न ऐसी प्रकृति का है, जिसमें संविधान की व्याख्या से संबंधित विधि के सारवान प्रश्न शामिल हैं और उसे कम से कम पाँच न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित करे?
13. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां प्रक्रियात्मक कानून के मामलों तक सीमित हैं या भारत के संविधान का अनुच्छेद 142 ऐसे निर्देश जारी करने/आदेश पारित करने तक विस्तारित है, जो संविधान या लागू कानून के मौजूदा सारवान या प्रक्रियात्मक प्रावधानों के विपरीत या असंगत हैं?
14. क्या संविधान, भारत के संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत वाद के माध्यम से छोड़कर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के किसी अन्य क्षेत्राधिकार पर रोक लगाता है?