साधना ‘प्राणायाम’ की प्रक्रिया द्वारा सधती है, तीन विशिष्ट प्राणायाम और उनके प्रतिफल

There are also many ways in public practice to make life better and vital, but according to the science of spirituality, a lot can be achieved in this field with the help of pranavidya. There are many ways of healing life, which have been indicated in Prasnopanishad with a subtle discussion. In short, that sadhana is done through the process of 'Pranayama'. There are 84 known pranayamas. The unknowns can be more than that. For the purpose of making the seekers of Kalpasadhana alive, such determinations have been chosen which are accessible to all. There is a lot of profit in its use, but even if there is a mistake, there is not the slightest possibility of loss.

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प्राण उपचार के कितने ही मार्ग हैं जिनका संकेत प्रश्नोपनिषद् में सूक्ष्म विवेचना के साथ किया गया है। 

-विज्ञात प्राणायामों की संख्या 84 हैं। अविज्ञात इससे भी अधिक हो सकते हैं।

जीवन को बेहतर व प्राणवान बनने के लिए लोक व्यवहार में भी कई उपाय हैं, पर अध्यात्म विज्ञान के अनुसार प्राणविद्या के सहारे भी इस क्षेत्र में बहुत प्राप्त किया जा सकता है। प्राण उपचार के कितने ही मार्ग हैं जिनका संकेत प्रश्नोपनिषद् में सूक्ष्म विवेचना के साथ किया गया है। संक्षेप में वह साधना ‘प्राणायाम’ की प्रक्रिया द्वारा सधती है। विज्ञात प्राणायामों की संख्या 84 हैं। अविज्ञात इससे भी अधिक हो सकते हैं। कल्पसाधना के साधकों को प्राणवान बनाने के उद्देश्य से ऐसे निर्धारण चुने गए हैं जो सर्वसुलभ हैं। जिनके प्रयोग में लाभ तो बहुत है किन्तु कोई भूल रहने पर भी हानि होने की तनिक भी आशंका नहीं है।

ऐसे तीन प्राणायाम कल्प साधना के एक मास में कराए जाते हैं। हर एक को तीन नहीं। इनमें से एक ही उसकी स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए निर्धारित किया जाता है। उसे एक महीने तक नियत समय पर नियत विधि से करते रहना होता है।

नाड़ी शोधन को एक प्रकार से आयुर्वेदोक्त पंचकर्म के समतुल्य माना जा सकता है। शारीरिक मलों के निष्कासन में दमन, विरेचन, स्वेदन, नस्य के पाँच उपाय अपनाए जाते हैं और विभिन्न अवयवों में भरे हुए संचित मलों को निकाल बाहर किया जाता है। इसके उपरान्त ही बलवर्धक रसायन पूरी तरह काम करते और प्रभाव दिखाते हैं। नाड़ीशोधन प्राणायाम का भी सूक्ष्म क्षेत्र में वही प्रभाव पड़ता है। पंचकर्म में प्रत्यक्ष मल इन्द्रिय छिद्रों से होकर निकलते हैं। नाड़ी शोधन प्राणायाम में बड़ी बात सूक्ष्म मलों का निष्कासन करने के रूप में शवासन क्रिया के माध्यम से सम्पन्न होती है।

प्राणाकर्षण प्राणायाम में ब्रह्माण्ड-व्यापी प्राणतत्त्व से अपने लिए जिस स्तर का प्राण आवश्यक होता है, उसे खींचा जाता है। प्राण की अनेक धाराएँ जिस प्रकार वायु में आक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन आदि अनेकों रासायनिक सम्मिश्रण रहते हैं उसी प्रकार संव्याप्त प्राण चेतना में भी ऐसे तत्व घुले हुए हैं जो विभिन्न स्तर के हैं और विभिन्न प्रकार के प्रयोजनों में प्रयुक्त होते हैं। उनमें से जिसकी जितनी मात्रा आवश्यक हो उसे उन अनुपात में खींचकर अपने किसी अंग विशेष में प्रतिष्ठापित किया जा सकता है। इसकी पद्धति प्रक्रिया और विधा कल्पसाधना काल में बताई जाती है।

सूर्यभेदन प्राणायाम में प्रकाशपुँज को आर− पार करने की प्रक्रिया बनती है। चीरते हुए गुजरने में मध्यवर्ती ऊर्जा के साथ संपर्क बनता है और सतही प्रभाव के हलकापन से उलझे रहने के स्थान पर अन्तराल में पाई जाने वाली प्रखरता के साथ जुड़ने की बात बनती हैं। सूर्य को इस विश्व का प्राण माना गया है। सविता सचेतन प्राण ऊर्जा केन्द्र है। उपरोक्त तीनों प्राणायामों की विधि संक्षेप में इस प्रकार है—

(1)नाड़ी शोधन प्राणायाम

इस प्राण प्रयोग में तीन बार बायें नासिका से साँस खींचते और छोड़ते हुए नाभिचक्र में चन्द्रमा का शीतल ध्यान, तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से साँस खींचते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश वाला ध्यान तथा आखिरी बार दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए मुख से साँस निकालने की प्रक्रिया सम्पादित की जाती है।    मुद्रा पूर्व की तरह। दायीं नासिका का छिद्र बन्दकर बायें से साँस खींचें और उसे नाभिचक्र तक ले जायें, ध्यान करें कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान शीतल प्रकाश विद्यमान है। साँस उसे र्स्पश कर स्वयं शीतल एवं प्रकाशवान बन रहा है। इसी नथुने से साँस बाहर निकालें व थोड़ी देर साँस रोककर बायीं ओर से ही इड़ा के इस प्रयोग को तीन बार करें। अब दायें नथुने से इसी प्रकार पूरक, अन्तः कुम्भक, रेचक व बाह्य कुम्भक करें व नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान करें। भावना कीजिये कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर लौटने वाली वायु पिंगला नाड़ी से होते हुए उष्मा और प्रकाश उत्पन्न कर रही है। इस क्रिया को भी तीन बार करें। अन्त में नासिका के दोनों छिद्र बोल कर साँस खींचकर व भीतर रोककर मुँह खोलकर एक बार में ही बाहर निकाल दें। प्रारम्भ में एक ही नाड़ी शोधन का अभ्यास करें पीछे धीरे-धीरे संख्या बढ़ायी जा सकती है।

(2) प्राणाकर्षण प्राणायाम 

इस सृष्टि में सतत् विभिन्न स्तर के प्राण प्रवाहों का स्पन्दन चल रहा है। साधक अपने पुरुषार्थ से इन्हें सहज ही प्राप्त व धारण कर सकता है प्राणाकर्षण प्रयोग में अन्तरिक्ष के असीम प्राण भंडार से अनुदान प्राप्त किये जाते हैं। इसका प्रयोग इस प्रकार है।

पूर्वाभिमुख हो पालथी मार कर बैठें। दोनों हाथ घुटनों पर, मेरुदण्ड सीधा, आँखें बन्द। ध्यान करें कि अखिल आकाश प्राण तत्व से व्याप्त है। सूर्य के प्रकाश में चमकते बादलों की शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है। नासिका के दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए यह भावना कीजिए कि प्राण तत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपने अन्दर खींच रहे हैं। यह प्राण हमारे विभिन्न अंग अवयवों में प्रवेश कर रहा है। जितनी देर आसानी से रोक सकें साँस को भीतर रोकें, भावना करें कि प्राण तत्व में सम्मिश्रित चैतन्य, बल, तेज, साहस, पराक्रम जैसे घटक हमारे अंग-प्रत्यंगों में स्थिर हो रहे हैं। इसके बाद साँस धीरे-धीरे बाहर निकालें, साथ ही चिन्तन कीजिए कि प्राण का सार तत्व हमारे अंग-प्रत्यंगों द्वारा पूरी तरह सोख लिया गया। थोड़ी देर तक बिना साँस के रहें व भावना करें कि जो दोष बाहर निकाले गए हैं, वे हमसे बहुत दूर चले जा रहे हैं व उन्हें अब अन्दर प्रवेश नहीं होने देना है। इस पूरी प्रक्रिया को पाँच प्राणायामों तक ही सीमित रखा जाय।

(3) सूर्यभेदन प्राणायाम

ब्रह्मप्राण को आत्मप्राण के साथ संयुक्त करने के लिए उच्चस्तरीय प्राणयोग की आवश्यकता पड़ती है सूर्य-वेधन इसी स्तर का प्राणायाम है। इसमें ध्यान-धारणा को और भी अधिक गहरा बनाया जाता है एवं प्राण ऊर्जा को साँस द्वारा खींचकर इसे सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कराया जाता है। पद्धति इस प्रकार है –

पूर्वाभिमुख, सरल पद्मासन, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अध खुले, घुटने पर दोनों हाथ। यह ध्यान-मुद्रा है। बायें हाथ को मोड़ें उसकी हथेली पर दायें हाथ कोहनी पर रखकर, दाहिने हाथ का अँगूठा दाहिने नथुने पर अनामिका अंगुलियों से बायें नथुने को बन्द कर गहरी साँस खींचें। साँस इतनी गहरी हो कि पेट फूल जाए, वह फेफड़े तक सीमित न रहे। ध्यान करें कि प्रकाश प्राण से मिलकर दायें नासिका-छिद्र से पिंगला नाड़ी में होकर अपने सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर रहा है। साँस रोकें व दोनों नथुने बन्द कर यह ध्यान करें कि नाभिचक्र के प्राण द्वारा एकत्रित यह तेज पुँज यहाँ अवस्थित चिरकाल से प्रसुप्त पड़े सूर्य चक्र को प्रकाशवान कर रहा है। वह निरन्तर प्रकाशवान हो रहा है। अब बायें नथुने को खोल दें और ध्यान करें कि सूर्य चक्र को सतत् घेरे रहने वाले, धुँधला बनाने वाले कल्मष छोड़ी हुई साँस के साथ बाहर निकल रहे हैं। पीत वर्ण का मलिन धुँधला प्रकाश इड़ा नाड़ी से बाहर निकल रहा है।

अब दोनों नथुने फिर बन्द कर फेफड़ों को बिना साँस के खाली रखें व भावना करें कि नाभिचक्र में एकत्रित प्राण तेज पुँज की तरह, अग्नि शिखा की तरह ऊपर उठ रहा है, सुषुम्ना नाड़ी से प्रस्फुटित हुआ यह प्राण तेज सारे अन्तः प्रदेश को प्रकाशवान बना रहा है। सर्वत्र तेजस्विता व्याप्त ही रही है। यही प्रक्रिया फिर बायें नथुने से साँस खींचते व रोककर दायें से बाहर फेंकते हुए दुहराएँ व भावना उसी प्रकार करें जैसा ऊपर वर्णित है। यह पूरी प्रक्रिया लोम विलोम सूर्यभेदन प्राणायाम की कहलाती है।

प्राण धारण प्रक्रिया ‘डीप ब्रीथिंग‘ के सामान्य श्वास-प्रश्वास अभ्यास से अलग है। इसमें साधक महाप्राण के भाण्डागार से अपनी पात्रता के अनुरूप प्राण रूपी आध्यात्मिक ऊर्जा ग्रहण करते व उसका सदुपयोग प्रसुप्त की जागृति में करते हैं। अनेकानेक फल श्रुतियों से भरा यह साधना उपक्रम हर कल्प साधक को संक्षेप में ही सही जानना अनिवार्य है।

साभार : अखंड ज्योति

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