-राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने की शक्ति चुनाव आयोग के पास नहीं है। जनता को सोचना चाहिए ऐसे वादों का अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा ?
नई दिल्ली। राजनीतिक दलों ने जनता को बिन मांगे फ्री की चीजें और सुविधाएं दिये जाने के वायदों की परम्परा शुरू कर दी है। चुनाव जीतने के लिए नेताओं ने राजकोष का दुरूपयोग करना शुरू कर दिए है। राजनीतिक दलों की ओर से मुफ्त का सामान देने पर पार्टीयों की मान्यता रद्द करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुच गया है। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख दिखाया है। चुनाव से पहले या चुनाव के बाद फ्री का सामान देने का वादा करने वाली पार्टीयों की मान्यता रद्द किये जाने कि याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान चुनाव ओयोग ने हलफनामा दाखिल किया है। हालाकि, चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में कहा हम पार्टियों के मुफ्त उपहार के वादे पर रोक नहीं लगा सकते। ऐसा करना आयोग के क्षेत्राधिकार से बाहर है। मुफ्त उपहार देना राजनीतिक पार्टियों का नीतिगत फैसला है। अदालत पार्टियों के लिए गाइडलाइन तैयार कर सकती है।
चुनाव आयोग इसे लागू नहीं कर सकता. फ्री बी का विपरीत प्रभाव, वित्तीय व्यवहार्यता पर मतदाता विचार करे। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हलफनामे में कहा है कि चुनाव से पहले या बाद में किसी भी मुफ्त उपहार की पेशकश / वितरण संबंधित पार्टी का नीतिगत निर्णय है। क्या ऐसी नीतियां आर्थिक रूप से व्यवहार्य हैं या राज्य के आर्थिक स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। ये एक ऐसा प्रश्न है जिस पर राज्य के मतदाताओं द्वारा विचार और फैसला लिया जाना है। चुनाव आयोग के हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट के जून 2013 के सुब्रमण्यम बालाजी के फैसले के बारे में भी बात की गई है जिसमें कहा गया था कि घोषणापत्र में उनके द्वारा दी जाने वाली मुफ्त सुविधाएं। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत “भ्रष्ट प्रथाओं” और “चुनावी अपराधों” के तहत नहीं आती हैं।
चुनाव आयोग ने कहा कि ऐसे वादों पर राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने की शक्ति चुनाव आयोग के पास नहीं है। चुनाव आयोग ने कहा जनता को सोचना चाहिए ऐसे वादों का अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा। चुनाव आयोग ने कहा कि वर्तमान में उसके पास ऐसे वादों को लेकर राजनीतिक दल के पंजीकरण को रद्द करने की शक्ति नहीं है। चुनाव आयोग ने कहा कि राज्य की जनता को इसपर फैसला लेना चहिये की क्या ऐसे फैसलों से आर्थिक रूप से सही है या अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। निर्वाचन आयोग ने कहा कि चुनाव आयोग राज्य की नीतियों और निर्णयों का विनियमन नहीं कर सकता है जो विजयी दल द्वारा सरकार बनाने पर लिए जा सकते हैं। इससे पहले जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगा था सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों के मुफ्त उपहार देने से वादे पर चिंता भी जताई थी।
मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने कहा था कि यह एक गंभीर मुद्दा है, इसमें कोई संदेह नहीं है। मुफ्त बजट नियमित बजट से परे जा रहा है। कई बार सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि यह एक समान खेल का मैदान नहीं है। पार्टियां चुनाव जीतने के लिए और अधिक वादे करती हैं। सीमित दायरे में हमने चुनाव आयोग को दिशानिर्देश तैयार करने का निर्देश दिया था। लेकिन बाद में उन्होंने हमारे निर्देशों के बाद केवल एक बैठक की। उन्होंने राजनीतिक दलों से विचार मांगे और उसके बाद मुझे नहीं पता कि क्या हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता से कहा कि उन्होंने सिर्फ पार्टियों को ही शामिल क्यों किया है। याचिकाकर्ता की ओर से विकास सिंह ने कहा कि वो बाकी पार्टियों को भी शामिल करेंगे।
कोर्ट ने केंद्र और चुनाव आयोग से पूछा था कि चुनाव से पहले मतदाताओं से किए गए मुफ्त उपहारों के वादे को पूरा करने के लिए भी विचार करते है ? हालांकि कोर्ट ने याचिकककर्ता अश्विनी उपाधयाय से भी पूछा कि जब तमाम राजनैतिक दल वादे कर रहे है, आपने सभी पार्टियों की जगह सिर्फ दो ही पार्टी का जिक्र क्यों किया है ? इस मामले पर याचिकाकर्ता की तरफ से कहा गया सरकारी फंड से मुफ्त उपहार बांटने का वायदा स्वतंत्र,निष्पक्ष चुनाव को प्रभावित करता है। इसलिए इसे अपराध घोषित किया जाना चाहिए।
दरअसल राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को रिझाने के लिए सार्वजनिक कोष से मुफ्त ‘उपहारों’ के वादे का वितरण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई है। याचिका में चुनाव आयोग को ऐसे राजनीतिक दलों का चुनाव चिन्ह को जब्त करने और पंजीकरण रद्द करने का निर्देश देने की मांग की है। कहा गया है कि मुफ्त ‘उपहारों’ को घूस माना जाना चाहिए। भाजपा नेता एवं वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर इस याचिका में कहा गया है कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के समय ‘उपहार’ की घोषणा से मतदाताओं को अनुचित रूप से प्रभावित किया जाता है। इससे चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता प्रभावित होती है। इस तरह के ‘प्रलोभन’ ने निष्पक्ष चुनाव की जड़ों को हिलाकर रख दिया है। याचिका में राजनीतिक दलों के ऐसे फैसलों को संविधान के अनुच्छेद-14, 162, 266 (3) और 282 का उल्लंघन बताया गया है। याचिका में दावा किया गया है कि राजनीतिक दल गलत लाभ के लिए मनमाने ढंग से या तर्कहीन ‘उपहार’ का वादा करते हैं और मतदाताओं को अपने पक्ष में लुभाते हैं, जो रिश्वत और अनुचित प्रभाव के समान है।
याचिका में उदाहरण देते हुए कहा गया है कि अगर आम आदमी पार्टी( आप) पंजाब में सत्ता में आती है तो उसे राजनीतिक वादों को पूरा करने के लिए प्रति माह 12,000 करोड़ रुपए की जरूरत है। वहीं, शिरोमणि अकाली दल के सत्ता में आने पर प्रति माह 25,000 करोड़ रुपए और कांग्रेस के सत्ता में आने पर 30,000 करोड़ रुपए की जरूरत होगी, जबकि जीएसटी संग्रह केवल 1400 करोड़ रुपए है। याचिका में कहा गया है कि वास्तव में कर्ज चुकाने के बाद पंजाब सरकार वेतन-पेंशन भी नहीं दे पा रही है तो वह ‘उपहार’ कैसे देगी? याचिकाकर्ता उपाध्याय ने कहा कि वह समय दूर नहीं है जब एक राजनीतिक दल कहेगा कि हम घर आकर आपके लिए खाना बनाएंगे और दूसरा यह कहेगा कि हम न केवल खाना बनाएंगे, बल्कि आपको खिलाएंगे। सभी दल लोकलुभावन वादों के जरिए दूसरे दलों से आगे निकलने की जुगत में है.