-दुनिया की जीडीपी के एक फीसदी खर्च से पूरी हो सकती हैं विकासशील देशों की जलवायु संबंधी आवश्यकताएं।
– ग्लोबल नॉर्थ पर्याप्त जलवायु वित्त का प्रावधान करने में असफल रहा है। वहीं ग्लोबल साउथ को बार-बार अधूरे वादों और प्रतिबद्धताओं के चलते हर बार निराशा ही हाथ लगी है।”
नई दिल्ली (एजेंसी )। संयुक्त राष्ट्र के “फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC)” का 29वां “कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप 29)” सम्मेलन 11 नवंबर 2024 से अजरबैजान की राजधानी बाकू में शुरू होगा। उम्मीद है कि संयुक्त राष्ट्र के इस शिखर सम्मेलन में जलवायु वित्त पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।
नई दिल्ली की थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने इस बैठक से ठीक पहले एक नया पोजिशन पेपर जारी किया है। CSE ने इस पेपर में न केवल जलवायु वित्त से जुड़े प्रमुख मुद्दों पर प्रकाश डाला है, साथ ही ऐसे सिद्धांत भी प्रस्तुत किए हैं जो सम्मेलन में निष्पक्ष और महत्वाकांक्षी परिणाम सुनिश्चित कर सकते हैं।
ब्रीफिंग के मौके पर बोलते हुए CSE की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा, “कॉप-29, पेरिस के बाद सबसे महत्वपूर्ण जलवायु सम्मेलन हो सकता है, क्योंकि विकासशील देशों द्वारा अपने जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वित्तीय सहायता बेहद मायने रखती है।
अब तक हमने देखा है कि, ग्लोबल नॉर्थ पर्याप्त जलवायु वित्त का प्रावधान करने में असफल रहा है। वहीं ग्लोबल साउथ को बार-बार अधूरे वादों और प्रतिबद्धताओं के चलते हर बार निराशा ही हाथ लगी है।”
ऐसे में उन्होंने बाकू में इस स्थिति में बदलाव देखे जाने की उम्मीद जताई है।गौरतलब है कि कॉप-29 के दौरान पक्षकारों के बीच ‘न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल’ (एनसीक्यूजी) नामक एक नए जलवायु वित्त से जुड़े समझौते पर सहमति बनने की उम्मीद है।
यह समझौता 2009 में विकसित देशों द्वारा किए उस वादे की जगह लेगा जिसमें जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में विकासशील देशों की मदद करने के लिए सालाना 10,000 करोड़ डॉलर दिए जाने पर प्रतिबद्धता जताई गई थी। हालांकि, यह वादा महज एक बार, 2022 में पूरा किया गया है।
CSE में क्लाइमेट चेंज यूनिट की कार्यक्रम प्रबंधक अवंतिका गोस्वामी का कहना है, “विभिन्न विश्लेषणों से पता चला है कि वैश्विक GDP के महज एक फीसदी हिस्से से विकासशील देशों की जलवायु संबंधी मौजूदा आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है। यह राशि करीब एक ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष है। इतना ही नहीं यह राशि आने वाले वर्षों में इन देशों को अपनी जलवायु महत्वाकांक्षा में सुधार करने में भी मददगार साबित हो सकती है।”
उनके मुताबिक यह सहायता मुख्य रूप से अनुदान और कम ब्याज वाले ऋणों के माध्यम से दी जानी चाहिए। यह उनकी जलवायु संबंधी महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने में मदद कर सकता है, साथ ही विकास से जुड़ी उनकी प्राथमिकताओं को भी पूरा कर सकता है।
निजी वित्तपोषण को शामिल किया जाए
सीएसई द्वारा एनसीक्यूजी पर देशों की स्थिति के विश्लेषण से पता चला है कि विकसित देश लक्ष्य के तहत अपने द्वारा प्रदान की जाने वाली वित्तीय राशि के बारे में किसी भी तरह की प्रतिबद्धता से बच रहे हैं। वे यह भी चाहते हैं कि अधिक देश इसमें योगदान दें, निजी वित्तपोषण को शामिल किया जाए, तथा वित्तीय प्रवाह को जलवायु-अनुकूल बनाने पर चर्चा (जैसा कि अनुच्छेद 2.1(सी) में उल्लेख किया गया है) एनसीक्यूजी का हिस्सा हो।
वहीं इसके विपरीत, विकासशील देशों ने प्रति वर्ष एक से दो ट्रिलियन डॉलर का सुझाव देते हुए स्पष्ट लक्ष्य प्रस्तावित किए हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त, एनसीक्यूजी का मुख्य फोकस होना चाहिए और देशों की ऐतिहासिक जिम्मेवारी के आधार पर यह तय किया जाना चाहिए कि कौन कितना योगदान देगा।
वे यह भी चाहते हैं कि जलवायु-संगत वित्त प्रवाह (अनुच्छेद 2.1 (सी)) को पेरिस समझौते के अनुच्छेद 9 के तहत वादा किए गए अनिवार्य वित्तीय समर्थन से अलग माना जाए।
CSE में जलवायु परिवर्तन विभाग की कार्यक्रम अधिकारी और रिपोर्ट की सह-लेखिका सेहर रहेजा बताती हैं कि, “वैश्विक जलवायु कार्रवाई को सक्षम बनाने के लिए एनसीक्यूजी आवश्यक है। इसे विकासशील देशों के सामने आने वाली चुनौतियों, जैसे ग्रीन टेक्नोलॉजीस की उच्च लागत और बढ़ते कर्ज का भी समाधान करना चाहिए।”
गोस्वामी कहती हैं, “ऐसे माहौल में जहां बहुपक्षीय प्रक्रिया पर विश्वास खत्म हो रहा है, एनसीक्यूजी ग्लोबल नार्थ के लिए सही रास्ते पर चलने, साहस दिखाने और अपना उचित योगदान देने के अंतिम अवसरों में से एक है।”
अनुच्छेद 6:
पेरिस समझौते का अनुच्छेद छह, कॉप-29 में महत्वपूर्ण होगा क्योंकि देश कार्बन बाजार स्थापित करने के लिए काम कर रहे हैं। उत्सर्जन व्यापार से जुड़े नियम ईमानदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं। गोस्वामी कहती हैं, “यदि नियम कमजोर हैं, तो हम एक ऐसे कार्बन बाजार को बनाने का जोखिम उठाते हैं जो कागज पर तो आशाजनक लगता है लेकिन वास्तविकता में विफल हो जाता है। लेकिन अगर सही तरीके से किया जाए, तो यह एक सफल बाजार का मॉडल बन सकता है, जिसकी दुनिया को तत्काल जरूरत है।”
जलवायु शमन:
कॉप-29 में देश जलवायु शमन से जुड़ी कार्रवाई को बढ़ाने पर चर्चा करेंगे, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को 2025 में अपडेट किया जाना है। विकसित देश जहां अधिक मजबूत कार्रवाई के लिए दबाव डाल रहे हैं, वहीं विकासशील देश इसे संभव बनाने के लिए अधिक वित्तीय सहायता की मांग कर रहे हैं।
जलवायु अनुकूलन:
चूंकि अनुकूलन अंतराल बढ़ता जा रहा है, और जलवायु से जुड़ी चुनौतियों बढ़ रही हैं। ऐसे में देशों को अनुकूलन और सुरक्षित रहने के लिए स्पष्ट योजना की आवश्यकता है। यूएई में इसको लेकर एक फ्रेमवर्क तैयार किया गया था।
अब अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य को हासिल करने के लिए वित्त, क्षमता निर्माण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर महत्वपूर्ण चर्चाओं की तत्काल आवश्यकता है। इसके साथ ही प्रगति को मापने के लिए स्पष्ट संकेतक विकसित करने पर भी काम करने की जरूरत है।