गणधर्म के बगैर गणतंत्र दिवस का महत्व

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रविकांत सिंह 'द्रष्टा'
रविकांत सिंह ‘द्रष्टा’

   क्या हम गणतंत्र के सदस्य हैं? – प्रश्न-२

    -गणतंत्र का उद्देश्य न्याय की रक्षा करना है।
   -हमारी राष्ट्रीयता गणधर्म का नवीन संस्करण है गणधर्म ही राष्ट्रधर्म है।

‘‘अगर छोटे से छोटा अत्याचार सहन कर लिया जाय तो गणतंत्र अपना वजूद खो देता है। जो जनता अन्याय और अत्याचार का पूरे बल के साथ सामना नहीं कर सकती या अपने छोटे-छोटे स्वार्थों में लिप्त रहती है वह जनता गणतंत्र के लिए अपनी योग्यता साबित नहीं कर सकती है।’’

विधान सभा चुनाव–2022 में हर बार की तरह इस बार भी परिवारवाद जोर पकड़ लिया है। कुछ नेता अपने बेटे-बहु के लिए तो कुछ अपने चाचा-चाची, ताऊ,भाई-बहन के लिए पार्टी टिकट का जुगाड़ भिड़ा रहे हैं। नेताओं से जाति और उससे प्रथम पुत्र मोह का त्याग नहीं हो पा रहा है। जाति और धर्म के नाम पर पूॅजीपति नेता गणधर्म का माखौल उड़ा रहे हैं। मंत्री पुत्र सरेआम नागरिकों को गाड़ियों रौंद रहे हैं। गणतंत्र में राजनीतिक मर्यादाओं का उलंघन अब भी जारी है। इन्हीं अमर्यादित नेताओं के बीच देश ७३ वां गणतंत्र दिवस मना रहा है।

भावनाओं को देश के नागरिकों को आत्मार्पित किया

समाज में ऐसी घटनाएं अब हो रही हैं पहले के जमाने में नहीं हुआ करती थी। इस प्रकार की बातें झूठी है। किसी भी घटना की आलोचना सत्य, अहिंसा, धैर्य, त्याग और समर्पण की भावना के आधार पर की जाति है। यही उस घटना के साथ न्याय है और आलोचक का धर्म भी है। धर्म और अधर्म का विचार करते समय हमें अनेक दृष्टियों से विचार करना चाहिए। भारतीय संविधान में इन्हीं भावनाओं को आलोचकों ने समाहित किया है। प्रत्येक नागरिक को गणतंत्र के वजूद की रक्षा करने के लिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही दृढ़ संकल्प के साथ इन्हीं भावनाओं को देश के नागरिकों को आत्मार्पित किया गया है।

बेशक हमारे पास पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं पर अब भी उपभोग से देश वंचित हैं। गणतंत्र दिवस की परेड हमारी शक्ति और सामर्थ्य का प्रदर्शन है। यह प्रदर्शन देश की जनता को गौरवान्वित करता है। लेकिन एक सत्य यह भी है कि हम गण्तांत्रिक प्रगति पथ की कोई भी बाधा पार नहीं कर पाए हैं। अन्यायपूर्ण मानसिकता अब भी माउण्ट एवरेस्ट की तरह बाधा बन कर खड़ी है। जिसे कुछ लोग ही फतह कर पाते हैं।

सर्वस्व भोगों का त्याग करना ही गणधर्म है

‘द्रष्टा’ देख रहा है कि जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद,भाषावाद, पूँजीवाद, असहिष्णुता, परिवारवाद, मॉब लिंचिंग,कट्टरता आदि शब्दों के शोर ने वातावरण में तुफान खड़ा कर दिया है। गणतंत्र में इनकी बिल्कुल जगह नहीं होती है। या यह कह सकते है कि गणतंत्र ही नहीं होता है। इन शब्दों को आत्मसात कर विचार रखने व कर्म करने वाले या अन्याय होता देख मौन रहने वाले लोग गणतंत्र के वजूद को खत्म करते हैं।
गण का अर्थ होता है समूह। गण का प्रत्येक सदस्य राष्ट्र की प्रतिष्ठा तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी रहें उसे कहते हैं गणतंत्र। सदस्य के द्वारा निर्दोष को सताया जाना, अन्याय और अत्याचार करना गणतंत्र के लिए असहनशील है। लाचार, शोषित, वंचित व्यक्ति की सहायता कर उसे न्याय दिलाने के लिए सर्वस्व भोगों का त्याग करना ही गणधर्म है।

धर्म एव हतो-हन्ति।
धर्मो रक्षति रक्षित:

अर्थात् अगर हम धर्म का नाश करेंगे तो धर्म हमारा नाश करेगा। और यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा।
स्वार्थ त्यागकर कर्म करना इतना आसान नहीं है। इसलिए धर्म का पालन सदैव कठिन होता है। हमारी राष्ट्रीयता गणधर्म का नवीन संस्करण है गणधर्म ही राष्ट्रधर्म है। अगर छोटे से छोटा अत्याचार सहन कर लिया जाय तो गणतंत्र अपना वजूद खो देता है। जो जनता अन्याय और अत्याचार का पूरे बल के साथ सामना नहीं कर सकती या अपने छोटे-छोटे स्वार्थों में लिप्त रहती है वह जनता गणतंत्र के लिए अपनी योग्यता साबित नहीं कर सकती है।
गणतंत्र (प्रजातंत्र)भारत वासियों की पुरानी परम्परा है। अगर हममें अन्याय मात्र का सामना करने का भौतिक बल मौजूद हो, तथा मतभेदों और स्वार्थों को तिलांजलि देकर राष्ट्र सम्मान और गणमय की रक्षा करने के लिए बलिदान करने की क्षमता मौजूद हो तो भला किसका सामर्थ्य है जो हमें अपने पूर्वजों की सम्पत्ति के अधिकार या उपभोग से वंचित कर सके। गणधर्म में जो असीम शक्ति विद्यमान है, उसका यदि हम लोग सदुपयोग करना सीख लें तो हमारा भविष्य सुखमय हो जायेगा।

क्रमश: जारी है…..

…………..(व्याकरण की त्रुटि के लिए द्रष्टा क्षमाप्रार्थी है )

drashtainfo@gmail.com

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