नई दिल्ली। समाज में शांति व्यवस्था और अपराध पर नकेल कसने के लिए उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर एक्ट का दुरूपयोग होता रहा है। अब इस कानून को असंवैधानिक और निरर्थक बताकर कानून की वैधता को ख़त्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई है। याचिका में दावा किया गया है कि पुलिस द्वारा गैंगस्टर अधिनियम का दुरुपयोग किया जा रहा है, जो मनमाने ढंग से जिसके खिलाफ चाहें वो प्रावधानों को लागू करते हैं। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में एक केस होने पर गैंगस्टर एक्ट के तहत FIR दर्ज करने की वैधता को भी चुनौती दी गई।
उत्तर प्रदेश गैंगस्टर एवं समाज विरोधी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम, 1986 के विभिन्न प्रविधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। इस याचिका को एडवोकेट आन रिकार्ड अंसार अहमद चौधरी ने दाखिल किया है। याचिका में गैंगस्टर कानून की धारा तीन, 12 व 14 और उत्तर प्रदेश गैंगस्टर व समाज विरोधी गतिविधियां रोकथाम नियम 16(3), 22, 35, 37(3) व 40 को असंवैधानिक, गैरकानूनी और निरर्थक घोषित करने के लिए उचित निर्देश जारी करने की मांग की गई है।
गैंगेस्टर एक्ट के तहत लोगों की प्रॉपर्टी जब्त करना भी संविधान के मूल अधिकारों के खिलाफ है। याचिका में कहा गया है कि जिस व्यक्ति ने अपराध किया है और जिसके खिलाफ पहले ही FIR दर्ज की जा चुकी है, उसके खिलाफ अधिनियम के तहत फिर से FIR दर्ज करना, भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 (2) का उल्लंघन है। सरकार द्वारा बनाए गए गैंगस्टर अधिनियम और नियम आरोपी व्यक्तियों का कोई भेदभाव नहीं करता है।
याचिका में गैंगस्टर एक्ट के तहत मामला दर्ज करने, संपत्तियों की कुर्की, जांच और ट्रायल को लेकर प्रावधानों को चुनौती दी गई है।इसलिए, पुलिस द्वारा इसका दुरुपयोग किया जा रहा है, जो मनमाने ढंग से किसी के खिलाफ प्रावधानों को लागू करते हैं, याचिका में कहा गया है। ये एक्ट कानून के शासन के खिलाफ है। याचिका में आरोपी की 60 दिन की पुलिस रिमांड देने के प्रावधान को भी चुनौती दी गई है।आरोपी की संपत्ति को अधिग्रहण करने के पुलिस के अधिकार को भी गलत बताया गया है। याचिका में कहा कि यूपी गैंगस्टर ऐक्ट के अधिनियम अनुच्छेद 14 की कसौटी पर पूरी तरह से विफल है।
पुलिस के अधिकार को भी चुनौती
याचिका में कहा गया है कि एक्ट में नियम है कि आरोपी का आपराधिक इतिहास प्रासंगिक नहीं है और सिर्फ एक मामला भी FIR के लिए काफी है जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। गैंगस्टर एक्ट और नियम आरोपी व्यक्तियों में भेद नहीं करता इसलिए, पुलिस द्वारा इसका दुरुपयोग किया जा रहा है। आरोपी की संपत्ति की कुर्की के लिए जिला मजिस्ट्रेट गैंगस्टर्स अभियोजक और फैसला करने वाले बनाए गए हैं जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के स्पष्ट उल्लंघन में है। याचिका में आरोपी की संपत्ति को अधिग्रहण करने के पुलिस के अधिकार को भी चुनौती दी गई है। याचिका में कहा कि यूपी गैंगस्टर ऐक्ट के अधिनियम समानता के अधिकार की कसौटी पर पूरी तरह से विफल है।
संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन
याचिका के मुताबिक, कानून की उक्त धाराएं और नियम संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 20(2), 21 व 300ए और संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करते हैं। याचिका में वर्तमान रिट याचिका लंबित रहने तक गैंगस्टर एक्ट, 1986 की धारा दो/तीन के तहत पहले से पंजीकृत मामलों में आगे की कार्यवाही निलंबित रखने के प्रतिवादियों को निर्देश देने की मांग भी की गई है। याचिका में कहा गया है, ‘न्यायपालिका मौलिक अधिकारों की संरक्षक है और उसके पास न्यायिक समीक्षा की शक्ति है जो अदालतों को विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की पड़ताल करने और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने पर उन्हें अवैध घोषित करने का अधिकार प्रदान करती है। सरकार की हर कार्रवाई का कारण होना चाहिए और वह स्वेच्छाचारिता से मुक्त होनी चाहिए। यह कानून के शासन का सार है और उसकी न्यूनतम आवश्यकता है।’
वर्ष 1986 में पेश किया गया था गैंगस्टर एक्ट
गैंगस्टर एक्ट को वर्ष 1986 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने पेश किया था। इसका मुख्य उद्देश्य राज्य के कुख्यात अपराधियों के विरुद्ध मामले दर्ज करना और उन्हें सलाखों के पीछे डालना था ताकि संगठित अपराध व राज्य की शांति भंग करने वाली समाज विरोधी गतिविधियों की रोकथाम की जा सके। यह कानून दुर्दांत अपराधियों से निपटने के लिए लाया गया था। याचिका के मुताबिक, गैंगस्टर नियमों के नियम-22 में पुलिस या कार्यपालिका को किसी व्यक्ति के विरुद्ध गैंगस्टर एक्ट लगाने की निरंकुश विवेकाधीन शक्तियां प्रदान की गई हैं, भले ही उसके विरुद्ध आपराधिक इतिहास के नाम पर एक मामला दर्ज हो। पुलिस या कार्यपालिका को ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध भी गैंगस्टर लगाने की शक्ति है जिसके विरुद्ध पूर्व में किए गए अपराध के संबंध में संबंधित कानून के तहत पहले से FIR दर्ज हो।