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EC और CEC की नियुक्तियों के लिए 72 साल बाद भी कोई कानून नहीं, केंद्र ने किया दोहन – सुप्रीम कोर्ट

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नई दिल्ली।  मुख्य निर्वाचन आयुक्त (CEC) और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संविधान की चुप्पी और कानून की कमी के कारण शोषण का जो रवैया अपनाया जा रहा है, वह परेशान करने वाली परंपरा है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने मामले की सुनवाई के दौरान संविधान के अनुच्छेद 324 का हवाला दिया और कहा कि यह अनुच्छेद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की बात तो करता है, लेकिन नियुक्ति की प्रक्रिया के पर चुप है। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस बारे में कानून बनाने पर गौर किया जाना चाहिए था लेकिन 72 साल में ऐसा नहीं किया गया। यही कारण है कि केंद्र सरकार ने इस प्रक्रिया का शोषण किया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि 2004 के बाद से किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त ने छह साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है और यूपीए सरकार के 10 साल के शासन के दौरान छह सीईसी थे और एनडीए सरकार के आठ साल में आठ सीईसी हुए हैं। न्यायमूर्ति के एम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि यूपीए सरकार के 10 वर्षों में उनके पास छह सीईसी थे और वर्तमान एनडीए सरकार में लगभग आठ वर्षों में आठ सीईसी रहे। यह एक परेशान करने वाली बात है। इसे लेकर संविधान में कोई संतुलन नहीं है। इस तरह संविधान की चुप्पी का फायदा उठाया जा रहा है। कोई कानून नहीं है और कानूनी तौर पर वे सही माने जा रहे हैं। कानून के अभाव में कुछ भी नहीं किया जा सकता है। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यहां तक कि संस्थान के मुखिया के तौर पर चीफ इलेक्शन कमिश्नर का जो खंडित कार्यकाल होता है, उसमें वो कुछ ठोस नहीं कर पाते हैं। 2004 के बाद मुख्य चुनाव आयुक्तों की लिस्ट देखा जाए तो ज्यादातर ऐसे हैं जिनके दो साल से ज्यादा का कार्यकाल भी नहीं है। कानून के मुताबिक, छह साल का कार्यकाल होना चाहिए या फिर 65 साल की उम्र तक का कार्यकाल होना चाहिए। इनमें जो पहले हो जाए, वही कार्यकाल माना जाता है। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्यादातर ब्यूरोक्रेट होते हैं और सरकार ऐसे ब्यूरोक्रेट की उम्र पहले से जानती है जिन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया जाता है।  उन्हें ऐसे बिंदु पर नियुक्त किया गया था कि वे कभी भी ६ साल पूरे नहीं कर पाएं और उनका कार्यकाल छोटा था।  

केंद्र की ओर से अटॉर्नी जनरल वेंकटरमणि ने कहा कि वर्तमान प्रक्रिया जिसके तहत राष्ट्रपति चीफ इलेक्शन कमिश्नर और इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति करते हैं, उसे असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता है और अदालत इसे खत्म नहीं कर सकती है। उन्होंने कहा कि संविधान सभा के पास इससे पहले अलग-अलग मॉडल थे और उसने इस मॉडल को अपनाया था और अब अदालत यह नहीं कह सकती कि वर्तमान मॉडल पर विचार करने की आवश्यकता है। इस संबंध में संविधान का कोई प्रावधान नहीं है जिसकी व्याख्या की आवश्यकता है। जस्टिस जोसेफ ने कहा कि संविधान को बने 72 साल हो गए हैं, लेकिन संविधान में प्रावधान होने के बावजूद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए अभी तक कोई कानून नहीं है। 

जस्टिस जोसेफ ने कहा, संविधान सभा चाहती थी कि संसद एक कानून बनाए। संविधान को अपनाए हुए 72 साल हो गए हैं लेकिन कोई कानून नहीं है। जो भी पार्टी सत्ता में आएगी वह सत्ता में रहना चाहेगी और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। हमारा देश लोकतांत्रिक है। लोकतंत्र को समय-समय पर चुनावों के माध्यम से सरकार में बदलाव की आवश्यकता होती है। इसलिए, शुद्धता और पारदर्शिता बहुत जटिल रूप से जुड़ी हुई है और यह मूल संरचना का भी हिस्सा है।  

जस्टिस जोसेफ ने अटॉर्नी जनरल से कहा कि अगर यह संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है तो फिर यह जरूरी है कि कोर्ट इसकी समीक्षा करे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि डॉक्टर बीआर आंबेडकर ने संविधान सभा की बैठक में कहा था कि अनुच्छेद 324 आने वाली पीढ़ियों के लिए बड़ा सिरदर्द साबित होगा। अदालत ने अटॉर्नी जनरल से कहा है कि वह कोर्ट को अवगत कराएं कि चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए क्या मेकैनिजम अपनाया जाता है। सुप्रीम कोर्ट मामले में बुधवार को आगे की सुनवाई करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने 23 अक्टूबर 2018 को उस जनहित याचिका को संवैधानिक बेंच रेफर कर दिया था जिसमें कहा गया है कि चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कॉलिजियम की तरह सिस्टम होना चाहिए।

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